Monday, November 23, 2009

एक बदलाव बर्लिन से बंगाल तक

क्या आपको क्रिस्टीन मोंग्यू की फिल्म '4 मंथ्स, 3 वीक्स एंड 2 डेज' याद है? यह फिल्म तानाशाह निकोलॉय चौशेस्कू के वक्त की कहानी है। फिल्म में यह दिखाने की कोशिश की गई है कि किस तरह यूनिवर्सिटी की दो लड़कियों का गर्भपात कराने के लिए वहां के तानाशाह ने खास इंतजाम किया। उस समय के कम्युनिस्ट शासित रोमानिया में इस तरह के गर्भपात को गैरकानूनी माना जाता था। कांस फिल्म फेस्टिवल 2007 में इस फिल्म को प्रतिष्ठित पाम दि'ओर पुरस्कार मिला। फिल्म की कहानी के मुताबिक ओटिलिया और गैब्रीएला नाम की वही दोनों यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स आखिर में इस तानाशाह के अंत का कारण बनीं। यह एक ऐसे कम्युनिस्ट तानाशाह का अंत था जो लोगों की जिंदगी के हर पहलू पर अपना कब्जा चाहता था। फिल्म के मुताबिक, ओटिलिया अपना गर्भपात कराने में सफल तो रही, लेकिन इसकी कीमत उसे उस आदमी के साथ सेक्स करके चुकानी पड़ी, जिस शख्स ने अपने देश में गर्भधारण पर रोक लगाई थी।
इस साल साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित जर्मन लेखिका हेर्टा मुलर ने चौशेस्कू राज की कैफियत सिर्फ एक लाइन में बयान की है -'सुबह से एक ऐसा डर सताता था जो शाम होने तक आपके अस्तित्व को ही खत्म कर डालता था।' यूरोप के कुछ अन्य देशों की तरह रोमानिया पर नियंत्रण के नाम पर सोवियत संघ काल में जो तंत्र विकसित किया गया, उसमें सबसे ज्यादा अत्याचार रोमानिया के लोगों पर हुए। सोवियत संघ के कठपुतली शासकों के खिलाफ जब भी कोई जनांदोलन चला, उसे सोवियत टैंकों के नीचे नेस्तनाबूद कर दिया गया। आज से 20 साल पहले 9 नवंबर की रात को जब बर्लिन की दीवार गिरी थी तो पूरे यूरोप में खुशी की लहर दौड़ गई और लोग भारी संख्या में दोनों जर्मनी के एक होने की खुशी मनाने सड़कों पर निकल पड़े। लोगों ने उस दीवार के कंकड़-पत्थर तक अपने पास यादगार के रूप में सहेज कर रखे ताकि वे उन ऐतिहासिक लम्हों के गवाह रहें।
1989 की उस आधी रात के जश्न की तस्वीरें पूरी दुनिया में लोगों के जेहन में आज भी ताजा हैं। यह अलग मुद्दा है कि कम्युनिस्ट राज के खात्मे के बाद यूरोप ने आर्थिक या सामाजिक रूप से क्या तरक्की की है, लेकिन सदियों से कम्युनिस्ट राज के तहत किसी देश की हर संस्था (जिसमें कला और संस्कृति भी शामिल है) जिन बातों से बेचैनी महसूस कर रही थीं, उसने उन्हें ऐसे शासन से मुक्ति पाने के लिए प्रेरित किया। सदियों से ऐसे शासन की दहशत में जी रहे लोग हिंसक रास्ता अपनाने के लिए मजबूर हो गए। इस तरह वहां कम्युनिस्टों के खात्मे का इतिहास लिखा गया। पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों ने जो प्रयोग किया, उस पर कुछ-कुछ पूर्वी यूरोप में किए गए प्रयोगों की छाया दिखाई देती है। पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट राज की शुरुआत भी तमाम उम्मीदों के साथ हुई थी। इसे अपने आम कार्यकर्ताओं का पूरा समर्थन हासिल था, इसे आम लोगों (यहां इसका मतलब गरीब है) की सरकार बताया गया लेकिन 32 साल के इस स्वच्छंद शासनकाल में पश्चिम बंगाल के कम्युनिस्ट अपनी दिशा भूल गए। वे जमीन से जुड़े उन लोगों से दूरी बनाने की भूल कर बैठे, जो उन्हें सत्ता तक लाए थे। राज करने और धोखा देने में काफी फर्क है। लोगों द्वारा चुनी गई सरकार हो सकता है कि आम आदमी की बुनियादी जरूरतों को न पूरा कर सके। लेकिन अगर वह कुछ करने के नाम पर उन्हें धोखा दे तो इसे क्या कहेंगे? आखिरकार पश्चिम बंगाल के लोग जिन हालात का सामना कर रहे थे, उनके सब्र का पैमाना नंदीग्राम, सिंगूर और लालगढ़ में छलक उठा। इसी तरह पश्चिम बंगाल के कुछ और इलाके भी रणभूमि में तब्दील हो गए। अभी हाल में ब्लादिमीर पुतिन ने जब कहा कि उनकी पार्टी फिर सत्ता में लौटेगी, तो इस पर मिखाइल गोर्बाचॉव ने एक टीवी इंटरव्यू में टिप्पणी की कि किसी भी पार्टी को लंबे समय तक सत्ता में नहीं बने रहना चाहिए। सोवियत संघ में गोर्बाचॉव के सुधारों से ही दशकों पुराने कोल्ड वार और यूरोप में कम्युनिस्ट राज का खात्मा हुआ था। किसी भी देश में अगर सत्ता किसी एक पार्टी के हाथ में लंबे समय तक रहती है तो वह उस देश के लिए बहुत घातक साबित होती है। इससे सिर्फ भ्रष्टाचार ही नहीं पनपता, बल्कि सरकार की कार्यकुशलता पर भी असर पड़ता है। 1980 के आखिरी महीनों में यूरोप में बदलाव की जो लहर चली, उसने न सिर्फ इतिहास को फिर से लिखा बल्कि इसने पूरे विश्व पर इन अर्थों में असर डाला कि जिस सोवियत संघ की कम्युनिस्ट सत्ता को अजेय समझता जाता था, वह पूरी तरह खत्म हो गई। इधर, पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने खुद स्वीकार किया है कि प्रदेश में बदलाव की हवा बह रही है। उन्हें बदलाव का यह संकेत पंचायत चुनाव, लोकसभा चुनाव और उपचुनावों के नतीजों से मिला है। विचारधारा के तौर पर कम्युनिज्म को बार-बार परिभाषित करने की जरूरत पड़ती रही है। जब तक जोर इस बात पर रहा कि पश्चिम बंगाल की सरकार जमीन से जुड़ी हुई है, तब तक यह वहां मजबूती से जमी रही। लेकिन जैसे ही वामपंथियों ने अपने मूल सिद्धांतों से समझौता करते हुए अपने फैसले जनता पर थोपने की कोशिश शुरू की, तभी से इनका विरोध भी शुरू हो गया। अगर यह सरकार वहां के किसानों से बुरी तरह पेश नहीं आती तो शायद इसका नियंत्रण वहां कभी खत्म नहीं होता। किसी भी किसान के लिए उसकी जमीन से कीमती कुछ भी नहीं होता। उद्योग जगत को खुश करने के लिए किसानों की जमीन के सौदे से हालात बिगड़ने ही थे। पश्चिम बंगाल में यही हुआ है। किसानों की जमीनों पर स्पेशल इकनॉमिक जोन बनाने की नीति का जो नतीजा निकला, उसने कम्युनिस्ट सरकार की चूलें हिला दीं। सत्ता में इतने सालों तक बतौर सरकार कम्युनिस्टों ने चाहे जितने अच्छे और लोक हितकारी काम किए हों, लेकिन हाल की उनकी नीतियों से पाटीर् और सरकार की बनी बनाई विश्वसनीयता खत्म हो गई।

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