बीजेपी-शिवसेना भले ही महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को बड़ी ताकत नहीं मानती हो, मगर उसकी चुनावी रणनीति में मनसे को रोकने के उपायों को सब से ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। हालांकि अभी तक कोई रामबाण तरीका उसे नहीं मिल पाया है। उसकी नीति खासकर इस भरोसे पर तय की जा रही है कि 2004 के लोकसभा चुनाव में मुम्बई में बीजेपी-शिवसेना के उम्मीदवार जितने मतों से हारे उसकी तुलना में गत लोकसभा में कम मतों से हारे। इस गणित का उसने सीधा अर्थ यह लगाया है कि मनसे ने युति के कम और कांग्रेस-एनसीपी के ज्यादा मत काटे है। मुम्बई का ही उदाहरण लें तो इस बार उत्तर मुम्बई में राम नाईक पांच हजार मतों से हारे। जबकि गत लोकसभा में कांग्रेस के गोविंदा से वे तकरीबन 50 हजार मतों से हारे थे। उत्तर पूर्व में किरीट सोमय्या के बारे में यही हाल था। इस बार वे सिर्फ से तीन हजार मतों से हारे, पिछली बार 99 हजार 375 मतों से हारे थे। कमोबश यही हाल शिवसेना का हुआ है। मतों के लिहाज से या अपना हौसला बढ़ाने के लिए युति भले इस तर्क को सही मान रही हो पर यह सच है कि मनसे यदि मैदान में नहीं होती तो यंग मराठी वोटर्स सरकार के विकल्प के बतौर शिवसेना या बीजेपी को मत देते। 2009 के लोकसभा चुनाव में युति का यह मौका मनसे के कारण ही चुक गया। मुम्बई में विधानसभा की 36 सीटें है। लोकसभा में विधानसभा क्षेत्रों के अनुसार हर दल को प्राप्त मत यह बताते हैं कि बीजेपी-शिवसेना को सात सीटों पर और मनसे को अकेले पांच सीटों पर बढ़त मिली है। इतना ही नहीं छह विधानसभा क्षेत्रों में मनसे को गठबंधन के उम्मीदवारों से ज्यादा मत मिले हैं। मुम्बई में कांग्रेस-एनसीपी 24 सीटों पर आगे रही। इस गणित के बलबूते पर कांग्रेस आगे की नीति बना रही है। मजे की बात यह है कि एनसीपी को उत्तर पूर्व की जो एकमात्र सीट मिली, उसमें तीन विधानसभा की सीटों पर मनसे और दो पर बीजेपी को बढ़त मिली है। उत्तर मध्य मुम्बई में बीजेपी बहुत ही पिछड़ गई है। यहां की घाटकोपर (प.)विक्रोली, भांडुप में मनसे दूसरे नंबर पर है। वर्ली, भायखला, कुर्ला, कलिना, चांदिवली व मागाठणे में भी वह युति से आगे है। जिन विधानसभा क्षेत्रों में बीजेपी, शिवसेना आगे रही है उनमें घाटकोपर, मुलुंड, जोगेश्वरी, चारकोप, दहिनसर, बोरिवली, माहीम शामिल है। शेष 24 में कांग्रेस ही आगे है।
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