Friday, November 21, 2008

रोजी रोटी भी नहीं मिल रही इन चुनावों में

चुनाव आते ही रोजी-रोटी के जुगाड को लेकर कई लोग सतरंगी सपने बुनने शुरू कर देते हैं, लेकिन कुछ ऎसे लोग भी हैं जिनके लिए पिछले एक दशक से रोजगार की दृष्टि से चुनाव के कोई मायने नहीं रहे। ये लोग वे पेंटर हैं, जो किसी समय सिर्फ अपनी कूंची के बूते पर चुनाव के दौरान सप्ताह से लेकर महीने भर के दौरान अच्छी खासी कमाई कर लेते थे। पहले चुनाव प्रचार के लिए कपडे के बैनर, झंडे, झंडियां, पोस्टर, होर्डिग्स व कट-आऊट बनाने के ऑर्डर मिलते ही पेंटरों का काम शुरू होता था। समय पर काम देने के लिए कई रातों तक जागना पडता था। कूंची चलाते-चलाते थककर चूर हो जाते थे। लेकिन, मशीनरी युग में इनके सितारे गर्दिश में आने लगे। आज हालत यह है कि छोटा-मोटा ऑर्डर भी नहीं मिलता। शहर में करीब पचास पेंटरों के लिए चुनाव के दौरान हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के अलावा कोई चारा नहीं है।दिन के चालीस-पचास का जुगाडपचास से साठ वसंत देख चुके पेंटरों का कहना कि तीस-पैंतीस साल पहले चुनाव सामग्री तैयार करने पर दिन की चालीस से पचास रूपए की आय हो जाती थी, जो उस जमाने में काफी थी। उनका हाथ बंटाने वालों को पंद्रह से बीस रूपए आसानी से मिल जाते थे। मशीनों की फिनिशिंग ने लीला धंधापेंटरों के मुताबिक एक तो मशीन से बैनर व पोस्टर जल्दी बनते हैं और बढिया फिनिशिंग के कारण आकर्षक लगते हैं। कम समय में हाथ से इतने बैनर पेंट करना न तो आसान है और ना ही सस्ता। पहले पेंटर बैनर व पोस्टर बनाने के लिए वनस्पति से बने रंगों, पेवडी के पत्थरों के पाउडर, 346 नम्बर के सफेदे, एल्यूमिनीयम व सिल्वर कलर का इस्तेमाल होता था। घूमते थे गांवों में पहले स्टेनलेस चद्दर के फर्मे तैयार कर उनसे दीवारों पर चुनावी नारे प्रिंट किए जाते थे। इसके लिए पेंटरों के सहायकों को गांव-गांव घूमना पडता था। पेंटर उन्हें राशन-पानी व खर्चे की राशि देने जाते थे। आज दीवारों पर किसी भी प्रकार की प्रचार सामग्री चस्पा करने पर भी रोक है।इनका है दर्द...पैतालीस साल से इस व्यवसाय में लगे पेंटर ने बताया कि वह सुनहरा समय था। काम में खाने तक का समय नहीं मिलता था। अब वो बात कहां। ऑर्डर नहीं मिलने से चुनाव बेमानी हो गए है। सरकार को चाहिए कि वे पेंटरों को सरकारी सहायता मुहैया करवाएं।

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