गोलमेज वार्ताएं तो जम्मू-कश्मीर विवाद का राजनीतिक समाधान खोजने में विफल रहीं। अब केंद्र सरकार 'खामोशी' से सभी विचारधाराओं के साथ वार्ता कर समाधान की दिशा में आगे बढ़ेगी! गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने जम्मू-कश्मीर मुद्दे के राजनीतिक समाधान के लिए खामोशी के साथ वार्ता का नया फार्मूला ऐसे समय पर निकाला है, जबकि राज्य के हालात काफी हद तक केंद्र और राज्य सरकार के काबू में हैं। ऐसे में इस 'खामोश बातचीत' के नतीजे कितने अलग होंगे, यह देखना दिलचस्प होगा। हालांकि, केंद्र सरकार के एक शीर्ष नेता का दावा है, 'यह खामोश वार्ता सिर्फ संदेश देने के लिए नहीं है। इस दफा यह कुछ ठोस नतीजे दिलाएगी।'
जाहिर तौैर पर पिछले दरवाजे से वार्ता की यह कोशिश हुर्रियत कांफ्रेंस के 'आजादी', नेशनल कांफ्रेंस के 'पूर्ण स्वायत्तता' या पीडीपी के 'स्वशासन' जैसे नारों और पूरे कश्मीर में एक मुद्रा चलाने जैसी मांगों को बार-बार मीडिया में आने या चर्चा का मुद्दा बनने देने से रोकने के लिए है। समाधान के नाम पर सीधे प्रधानमंत्री जम्मू-कश्मीर जाते तो राजनीतिक अलगाववादियों के भाव बढ़ने और राजनीतिक दलों की उलटबासियां शुरू होने का खतरा था। इसीलिए वह काजीगुंड रेलवे लाइन के उद्घाटन के लिए अगले डेढ़ हफ्ते में वहां जाएंगे। मगर माहौल तैयार करने के उंद्देश्य से ही इस दफा संपादक कांफ्रेंस के सहारे उन्होंने पहले गृह मंत्री पी. चिदंबरम के साथ सूचना प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद को भेज कर बातचीत का माहौल तैयार कराया।
वह भी तब जबकि, जम्मू कश्मीर में आतंकवाद क्षरण पर है। घाटी में भी जम्हूरियत का सूरज पूरी प्रखरता से आभा बिखेर रहा है। पाकिस्तान खुद बेहाल है। घुसपैठ की कोशिशों पर भारतीय सेना और सुरक्षा बल भारी पड़ रहे हैं। अलगाववादी भी ठंडे पड़ गए हैं। जम्मू-कश्मीर में इतने सामान्य हालात अर्से बाद तब हुए हैं, जबकि पिछले एक साल से ज्यादा समय से राजनीतिक समाधान की दिशा में कोई बातचीत ही नहीं हुई है। ऐसे में भी प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक समाधान की दिशा में पहल कर दो मोर्चो पर संदेश दिया है।
पहला जम्मू-कश्मीर की अवाम और उनके 'नुमाइंदों' को तो दूसरा विश्व बिरादरी को। जम्मू-कश्मीर में सतत विकास और वहां के लोगों की भावनाओं के सम्मान के प्रति उन्होंने भारत सरकार की प्रतिबद्धता साबित की। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर की समस्या के स्थायी समाधान की दिशा में भी सर्दियों के पहले कदम काफी-सोच समझ कर बढ़ाया है। उस समय मौसम के चलते पाकिस्तान की तरफ से घुसपैठ कम होती है, वहीं बर्फबारी के बीच राजनीतिक सरगर्मियां भी श्रीनगर की तरफ इतनी नहीं होतीं।
केंद्र इस बात को भली-भांति समझता है कि वार्ता हमेशा दोधारी तलवार है। मगर इस समय पाकिस्तान अपनी उलझनों में फंसा है, वहीं अलगाववादी नेताओं के सामने भी ज्यादा विकल्प नहीं हैं। उन्हें तवज्जो भी मिल जाए और वे इसका कहीं नाजायज फायदा न उठा सकें, इसीलिए खामोशी के साथ समाधान की दिशा में बातचीत की रणनीति तय की गई है। चिदंबरम ने घाटी में ही अपनी इस रणनीति को स्पष्ट भी कर दिया कि 'हम नहीं चाहते कि बातचीत खिंचे।' मतलब साफ है कि बातचीत परवान न चढ़ने पर कोई तूफान न खड़ा हो, इसीलिए सरकार ने इस 'खामोश बातचीत' के नुस्खे पर आगे बढ़ना शुरू किया है।
केंद्र सरकार के एक बड़े अधिकारी ने इस रणनीति को और स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि 'वास्तव में गुपचुप तरीके से जितनी सार्थक बातचीत हो सकती है, वह मीडिया के माध्यम से संभव नहीं। अंतत: हमें राजनीतिक समाधान तलाशना होगा। इसके लिए पाकिस्तान से वार्ता से पहले हमें अपना घर ज्यादा ठीक करना होगा। हमें लग रहा है कि यह सबसे उपयुक्त समय है और इसीलिए हमने काफी सोच-समझ कर इस दिशा में कदम आगे बढ़ाया है।'
जाहिर तौैर पर पिछले दरवाजे से वार्ता की यह कोशिश हुर्रियत कांफ्रेंस के 'आजादी', नेशनल कांफ्रेंस के 'पूर्ण स्वायत्तता' या पीडीपी के 'स्वशासन' जैसे नारों और पूरे कश्मीर में एक मुद्रा चलाने जैसी मांगों को बार-बार मीडिया में आने या चर्चा का मुद्दा बनने देने से रोकने के लिए है। समाधान के नाम पर सीधे प्रधानमंत्री जम्मू-कश्मीर जाते तो राजनीतिक अलगाववादियों के भाव बढ़ने और राजनीतिक दलों की उलटबासियां शुरू होने का खतरा था। इसीलिए वह काजीगुंड रेलवे लाइन के उद्घाटन के लिए अगले डेढ़ हफ्ते में वहां जाएंगे। मगर माहौल तैयार करने के उंद्देश्य से ही इस दफा संपादक कांफ्रेंस के सहारे उन्होंने पहले गृह मंत्री पी. चिदंबरम के साथ सूचना प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद को भेज कर बातचीत का माहौल तैयार कराया।
वह भी तब जबकि, जम्मू कश्मीर में आतंकवाद क्षरण पर है। घाटी में भी जम्हूरियत का सूरज पूरी प्रखरता से आभा बिखेर रहा है। पाकिस्तान खुद बेहाल है। घुसपैठ की कोशिशों पर भारतीय सेना और सुरक्षा बल भारी पड़ रहे हैं। अलगाववादी भी ठंडे पड़ गए हैं। जम्मू-कश्मीर में इतने सामान्य हालात अर्से बाद तब हुए हैं, जबकि पिछले एक साल से ज्यादा समय से राजनीतिक समाधान की दिशा में कोई बातचीत ही नहीं हुई है। ऐसे में भी प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक समाधान की दिशा में पहल कर दो मोर्चो पर संदेश दिया है।
पहला जम्मू-कश्मीर की अवाम और उनके 'नुमाइंदों' को तो दूसरा विश्व बिरादरी को। जम्मू-कश्मीर में सतत विकास और वहां के लोगों की भावनाओं के सम्मान के प्रति उन्होंने भारत सरकार की प्रतिबद्धता साबित की। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर की समस्या के स्थायी समाधान की दिशा में भी सर्दियों के पहले कदम काफी-सोच समझ कर बढ़ाया है। उस समय मौसम के चलते पाकिस्तान की तरफ से घुसपैठ कम होती है, वहीं बर्फबारी के बीच राजनीतिक सरगर्मियां भी श्रीनगर की तरफ इतनी नहीं होतीं।
केंद्र इस बात को भली-भांति समझता है कि वार्ता हमेशा दोधारी तलवार है। मगर इस समय पाकिस्तान अपनी उलझनों में फंसा है, वहीं अलगाववादी नेताओं के सामने भी ज्यादा विकल्प नहीं हैं। उन्हें तवज्जो भी मिल जाए और वे इसका कहीं नाजायज फायदा न उठा सकें, इसीलिए खामोशी के साथ समाधान की दिशा में बातचीत की रणनीति तय की गई है। चिदंबरम ने घाटी में ही अपनी इस रणनीति को स्पष्ट भी कर दिया कि 'हम नहीं चाहते कि बातचीत खिंचे।' मतलब साफ है कि बातचीत परवान न चढ़ने पर कोई तूफान न खड़ा हो, इसीलिए सरकार ने इस 'खामोश बातचीत' के नुस्खे पर आगे बढ़ना शुरू किया है।
केंद्र सरकार के एक बड़े अधिकारी ने इस रणनीति को और स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि 'वास्तव में गुपचुप तरीके से जितनी सार्थक बातचीत हो सकती है, वह मीडिया के माध्यम से संभव नहीं। अंतत: हमें राजनीतिक समाधान तलाशना होगा। इसके लिए पाकिस्तान से वार्ता से पहले हमें अपना घर ज्यादा ठीक करना होगा। हमें लग रहा है कि यह सबसे उपयुक्त समय है और इसीलिए हमने काफी सोच-समझ कर इस दिशा में कदम आगे बढ़ाया है।'
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