संजय दत्त को लोकसभा चुनाव लड़ने की मनाही हो गई है। ऐक्ट्रिस जयाप्रदा को लेकर समाजवादी पार्टी में घमासान चल रहा है। इनके आगे-पीछे कई दूसरे फिल्मी सितारे भी राजनीति के मैदान में हाथ आजमाने की कोशिश करते रहे हैं। सिनेमा की दुनिया से राजनीति में आने वालों की एक लंबी लिस्ट है। लेकिन अर्से से यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि इन फिल्मी सितारों को आखिर राजनीति के अखाड़े में क्यों आना चाहिए? और ये लोग चुने जाने पर भी देश की राजनीति को अपना क्या योगदान देते हैं? आजादी के फौरन बाद के अरसे में जो फिल्मी सितारे राजनीति के अखाड़े में उतरे थे, उनमें से ज्यादातर का जुड़ाव किसी न किसी रूप में समाजसेव या देशसेवा से रहा था। अपनी फिल्मों के जरिए वे एक तरह की समाजसेवा कर रहे थे। वे छुआछूत, गरीबी और सामाजिक समस्याओं को लेकर फिल्में बनाते थे, लेकिन वे सक्रिय राजनीति से दूर रहे। बदलते वक्त के साथ कुछ ऐक्टर धीरे-धीरे राजनैतिक दलों से जुड़ने लगे, हालांकि फिर भी वे वोट पॉलिटिक्स में सीधे नहीं उतरे। इस मामले में उत्तर के यानी मुंबइया हिंदी सिनेमा के कलाकारों के बरक्स साउथ के फिल्म स्टार थोड़ा अलग रहे। दक्षिण के सितारे राजनीति में गहरे उतरे, जैसे एम. जी. रामचंद्रन, के. करुणानिधि, एन.टी. रामाराव वगैरह। युवावस्था में नाटकों में काम करने वाले एम.जी. रामचंद्रन और के. करुणानिधि फिल्मों में अपनी रुचि के क्षेत्रों में सफल हुए थे। और बाद में उन्होंने राजनीति में भी अपनी छाप छोड़ी। कभी हिंदी विरोध की अगुवाई करने वाले करुणानिधि, एमजीआर से पहले ही तमिलनाडु की कुर्सी संभाल चुके थे। 11 बार एमएलए का चुनाव जीतने वाले करुणानिधि ने अलग-अलग दौर में पांच बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। एमजीआर की विरासत के नाम पर जय ललिता ने भी खूब राजनीति की है। वे तीन बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। राजनीति में फिल्मी सितारों की सफलता की एक ऐसी ही कहानी आंध्र प्रदेश में एन. टी. रामाराव ने भी लिखी। दो बार आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने वाले एनटीआर ने तेलुगू फिल्मों में भगवान के इतने किरदार निभाए कि तमाम लोग उन्हें भगवान जैसा ही मानने लगे थे। 1982 में उन्होंने तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) बनाई और 'तेलुगू पीपल्स सेल्फ रेस्पेक्ट' का नारा दिया। एनटीआर का जनता में इतना जबर्दस्त आकर्षण था कि पार्टी के गठन के नौ महीने के अंदर टीडीपी आंध्र प्रदेश में सत्ता में आ गई। पर दक्षिण के सितारों जैसी कोई बड़ी सफलता राजनीति में उत्तर के फिल्मी सितारे नहीं पा सके। इसकी अहम वजह यह है कि दक्षिण के सितारों में जहां एक ओर जनता जननायकों की-सी छवि देखती थी, वहीं ये सितारे भी अपने व्यक्तिगत जीवन में कुछ ऐसे आदर्शों का पालन करते दिखते थे, जिन्हें वे पर्दे पर विभिन्न चरित्रों के माध्यम से साकार करते थे। बताते हैं कि एमजीआर और एनटीआर ने कभी ऐसे रोल स्वीकार नहीं किए, जिनमें सिगरेट या शराब पीने के दृश्य हों। ऐसे प्रयासों से दक्षिण में फिल्मी सितारों की एक आदर्श छवि बनी, जो राजनीति में उनके उत्थान में मददगार साबित हुई। पर साउथ की फिल्मी शख्सियतों की तुलना में बॉलिवुड के सितारे परदे से बाहर सार्वजनिक जीवन में इस तरह की कोई आदर्श छवि नहीं पेश कर पाए। फिल्मों से अर्जित लोकप्रियता को भी ये राजनीति में सही तरीके से भुना नहीं सके। यहां तक कि राजनीति में आने के बाद ये अपनी फिल्म इंडस्ट्री के तक लिए कुछ विशेष नहीं कर पाए। बॉलिवुड के स्टार्स की एक कमजोरी यह भी रही कि उन्होंने साउथ के सितारों की तरह राजनीति से जुड़ने की कोशिश कभी नहीं की। यानी वे किसी पार्टी या उम्मीदवार का प्रचार तो कर सकते थे, लेकिन एमपी या एमएलए बन कर क्षेत्र की राजनीति करने का क्रेज उनमें नहीं रहा, जबकि साउथ के सितारों ने राजनीतिज्ञों का मोहरा बनने की बजाय राजनीति में खुद की भूमिका में ज्यादा यकीन किया। अमिताभ बच्चन के उदाहरण से यह बात समझी जा सकती है। ऐंग्री यंग मैन की उनकी छवि के बल पर एक समय लाखों-करोड़ों युवाओं के आदर्श कहलाने वाले अमिताभ चाहते तो राजनीति में साउथ के किसी भी अभिनेता से बड़ी सफलता पा सकते थे, अपने लिए वह राजनीति के लिए जरूरी जमीनी आधार तैयार कर सकते थे। इंदिरा गांधी की मौत के बाद अपने चतुर प्रतिद्वंद्वी हेमवती नंदन बहुगुणा को पटकनी देने के लिए राजीव गांधी ने उनको चुना था। दोस्ती की खातिर अमिताभ ने चुनाव लड़ा और बहुगुणा को हमेशा के लिए नेपथ्य में भेज दिया। लेकिन बाद में, वे राजनीतिक मंच पर बिल्कुल नकारा साबित हुए और वापस फिल्म और टीवी की दुनिया में लौट गए। बॉलिवुड के कलाकार अपने चुनाव क्षेत्र के विकास या फिर सदन में सक्रिय दिखने के मामले में भी फिसड्डी साबित हुए। सांसद निधि के इस्तेमाल आदि की तो बात छोडि़ए, गोविंदा और धर्मेन्द्र आदि पर तो आरोप है कि उन्होंने पांच साल में अपने निर्वाचन क्षेत्रों का रुख तक नहीं किया। ऐसी ही खराब परफॉर्मंस इनकी लोकसभा में उपस्थिति को लेकर भी रही। जयाप्रदा, राजेश खन्ना और जया बच्चन सरीखे अभिनेता -सांसदों ने भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाया है। इनके बीच एक सुनील दत्त ही ऐसे थे, जिन्होंने अपनी कुछ साख अर्जित की थी, पर मंत्री बनने पर वे भी बेहद कमजोर साबित हुए थे। चतुर नेताओं और अफसरों से निपटना उन्हें नहीं आया। कुछ इसी तरह की 'उपलब्धि' शत्रुघ्न सिन्हा और विनोद खन्ना की भी रही। जाहिर है, बॉलिवुड स्टार कम से कम राजनीति के मामले में तो युवाओं को प्रेरित करने की स्थिति में नहीं हैं। इससे ज्यादा प्रेरणा वे ऐक्टिंग के क्षेत्र में देते हैं। इस तरह दर्शकों को भी कुछ ढंग की फिल्में मिल जाती हैं।
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