यदि हार-जीत के अंतर पर भरोसा करें, तो आगामी चुनाव में गुजरात के मेहसाणा, पंचमहाल, दाहोद और वडोदरा के मतदाता उलटफेर कर सकते हैं। गुजरात में पिछले तीन लोकसभा चुनावों के परिणामों और हार-जीत के अंतर के अध्ययन का जो निष्कर्ष निकलता है, वह यही कहता है कि मेहसाणा, पंचमहाल, दाहोद और वडोदरा में इस बार उलटफेर हो सकता है। उलटफेर का तात्पर्य यही है कि पिछले चुनाव-2004 में मेहसाणा में कांग्रेस और पंचमहाल (गोधरा), दाहोद व वडोदरा में भाजपा को मिली जीत 1999 के मुकाबले कमजोर थी। यदि इस कमजोरी को सुधारा नहीं गया, तो 2009 में परिणाम बदल भी सकते हैं। हार-जीत के अंतर के आंकडे यही संकेत करते हैं कि मेहसाणा में कांग्रेस के जीवा पटेल, पंचमहाल में भाजपा के प्रभातसिंह चौहाण, दाहोद में भाजपा के सोमजी डामोर और वडोदरा में भाजपा के बालू शुक्ल के लिए डगर मुश्किल हो सकती है। दरअसल मेहसाणा में जीवा पटेल 1999 में 55 हजार 735 मतों से जीते थे, जबकि 2004 में उन्हें यह जीत महज 14 हजार 611 मतों से मिली। इसी प्रकार गोधरा में भाजपा के भूपेन्द्रसिंह सोलंकी 1999 में 95 हजार 22 मतों से मिली जीत 2004 में 53 हजार 719 मतों तक गिर गई। अब यह सीट पंचमहाल हो गई है और यहां मुख्य मुकाबला केन्द्रीय कपडा मंत्री शंकरसिंह वाघेला व भाजपा के प्रभातसिंह चौहाण के बीच है। दाहोद में 2004 में हार-जीत का अंतर सबसे कम 361 मतों का था। 1999 में भाजपा के बाबू कटारा यह सीट 12 हजार 431 मतों से जीते थे। इस बार भाजपा ने यहां सोमजी डामोर को मैदान में उतारा है। वडोदरा में भी हार-जीत का आंकडा भाजपा के लिए खतरे की घण्टी बना हुआ है। भाजपा की जया ठक्कर 1999 में 92 हजार 6 49 मतों से जीती थीं, लेकिन 2004 में यह अंतर भारी गिरावट के साथ 6 हजार 603 पर आ गया। संभवत: इसीलिए भाजपा ने इस बार ठक्कर का टिकट काट कर महापौर बालू शुक्ल को उम्मीदवार बना दिया। सूरत में भी भाजपा की जीत का अंतर लगातार तीन चुनावों से घट रहा है। हालांकि यह खतरे की घण्टी नहीं लगता। इसके बावजूद पार्टी ने काशीराम राणा का टिकट काट कर दर्शना जरदोश को उम्मीदवार बनाया है। राणा 1998 में 3 लाख 4 हजार 22 मतों से जीते थे, तो 1999 में यह अंतर घट कर 2 लाख 49 हजार 197 और 2004 में 1 लाख 50 हजार 563 रह गया। भाजपा बात समझ न सकी और परिणाम भी भुगतना पडा घटता अंतर वास्तव में किसी भी पार्टी के लिए अगले चुनाव में चेतावनी होता है, लेकिन पिछले चुनाव में भाजपा शायद यह बात समझ न सकी और उसे इसका परिणाम भी भुगतना पडा। भाजपा ने पिछले चुनाव में पांच ऎसी सीटें गंवाई, जहां पिछले दो चुनावों से उसकी जीत का अंतर लगातार घट रहा था या बहुत कम रह रहा था। इनमें जूनागढ भी शामिल है। 2004 के चुनाव में जूनागढ सीट से भाजपा की भावना चिखलिया को हार का सामना करना पडा। चिखलिया 1998 में यहां 90 हजार 311 मतों से जीती थीं और 1999 में जीत का यह अंतर घट कर 46 हजार 848 पर आ गया था। इसी प्रकार जामनगर में चंद्रेश पटेल 1998 में 60 हजार 119 मतों से जीते, तो 1999 में उन्हें 35 हजार 769 मतों से ही जीत मिली। परिणाम यह हुआ कि 2004 में विक्रम माडम के हाथों उन्हें हार का सामना करना पडा। अमरेली में 2004 में दिलीप संघाणी को हार का सामना करना पडा, क्योंकि 1998 में उनकी जीत का अंतर 1 लाख 22 हजार 173 था, जो 1999 में भारी गिरावट के साथ 36 हजार 324 पर आ गया। बनासकांठा में भी 1998 में भाजपा के हरीभाई चौधरी को 84 हजार 755 मतों से जीत मिली, जबकि1999 में उनकी जीत का अंतर 25 हजार 976 रह गया। परिणामत: 2004 में वे हार गए। उधर वलसाड में भी भाजपा संभली नहीं। मणिभाई चौधरी यहां 1998 और 1999 में बहुत कम अंतर से जीते। 98 में उन्हें 17 हजार, 276, तो 99 में 26 हजार 786 मतों से जीत मिली। यही कारण था कि 2004 में चौधरी को किशन पटेल के हाथों हारना पडा।
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