वह जमाने गए जब राजनीतिक दलों के नारे राजनीतिक दलों के स्तर पर ही तय हो जाते थे। अब इसके लिए बाकायदा पेशेवरों की सेवाएं ली जाती हैं। इस बार के लोकसभा चुनावों के लिए न केवल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) अपने पेशेवरों का चुनाव कर चुके हैं, बल्कि "जय हो....." तथा "मजबूत नेता, निर्णायक सरकार" के रूप में इनके पेशेवरों का काम भी सामने आ चुका है। अब देखना यह है कि मतदाता को क्या भाता है। चुनावी नारा कितना जिताऊ हो सकता है यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह जरूर है कि हर चुनाव में आम आदमी की जुबान पर चढने वाला नारा जरूर उभर आता है।कांग्रेस इस बार परसेप्ट, जे.डब्लू.टी. व क्रेयोन्स क्रिएटिव-एड एजेन्सी की सेवाएं ले रही है तो भा.ज.पा. ने मध्यप्रदेश विधानसभा में सेवाएं दे चुकी यूटोपिया और "ओनली विमल" से भारतीय विज्ञापन जगत में विशिष्ट पहचान बना चुके फ्रेंक सिमोएस को चुना है। साथ ही चुनाव सम्बन्धी फिल्मों व जिंगल्स आदि के लिए पेशेवर गायकों जैसे सुखविन्दर, शान व रूप कुमार राठौड जैसे कलाकारों को जुटाया गया है।परसेप्ट ने पिछले दिनों दुनिया भर में झंडे गाडने वाली मूवी स्लमडॉग मिलियनीयर के "जय हो..." के अधिकार खरीद रखे हैं। मूल रूप से संगीतकार ए.आर. रहमान रचित व सुखविन्दर का गाया हुआ "जय हो...." खासा लोकप्रिय हो चुका है। वैसे, भा.ज.पा. की तरफ से "जय हो..." आधारित पैरोडी भी चुनाव मैदान में है, लेकिन फिलहाल "जय हो....." का पलडा भारी नजर आ रहा है। "भारत निर्माण" के लिए फिल्में बना चुकी परसेप्ट कांग्रेस के लिए "जय हो..." आधारित विभिन्न संस्करणों की तैयारी में है। दूसरी तरफ भा.ज.पा. ने अपने चुनाव अभियान के लिए "मजबूत नेता, निर्णायक सरकार" का जुमला चुना है। जानकारों के अनुसार भा.ज.पा. के इस चुनाव में पेशेवर चुनाव विश्लेषक जी.वी.एल. नरसिंह राव की अहम भूमिका है। गत लोकसभा चुनाव की बात की जाए तो प्रमोद महाजन के "शाइनिंग इण्डिया" पर कांग्रेस का "कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ" भारी पडा। सत्तर से लेकर अस्सी के दशक के पूर्वार्द्ध तक भारतीय राजनीति पर श्रीमती इन्दिरा गांधी की छवि पूरी तरह हावी रही और नारे उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमते रहे। सन् 1971 में विपक्ष ने "इन्दिरा हटाओ, देश बचाओ" गढा तो कांग्रेस की तरफ से साहित्यकार श्रीकांत वर्मा का जवाब आया "वो कहते हैं इन्दिरा को हटाओ, मैं कहती हूं गरीबी हटाओ"। यह अलग बात है कि आपातकाल के बाद "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है" की बारी आई। यह राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की रचना की लाइन थी और निर्णायक साबित हुई। सन 1979 में जब कर्नाटक के कांग्रेसी सांसद वीरेन्द्र पाटिल ने श्रीमती इन्दिरा गांधी के लिए चिकमंगलूर सीट खाली की तो "एक शेरनी, सौ लंगूर-चिकमंगलूर, चिकमंगलूर" आम आदमी की जुबान पर था। श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद 1985 के चुनाव में राजीव गांधी भारी बहुमत के साथ सत्ता में आए, लेकिन जब विश्वनाथ प्रताप सिंह बोफोर्स को लेकर जनता के बीच गए तो "राजा नहीं फकीर है, जनता की तकदीर है" ने परिदृश्य बदल डाला। इसके बाद गूंजा "बच्चा-बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का" और "जय श्रीराम" ने भा.ज.पा. को पहली बार केन्द्र में पहुंचा दिया। इसी तरह भारतीय राजनीति में अहम भूमिका रखने वाले उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के उभरने पर "तिलक, तराजू और तलवार... सामने आया।
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