यूपी में लोकसभा चुनाव के लिए सत्तारूढ बहुजन समाज पार्टी ने 90 के दशक की तरह मुस्लिम-ब्राह्मण फार्मूला बनाया था, लेकिन वह चल नहीं पाया। नब्बे के दशक में समाजवादी पार्टी एम.वाई. फार्मूला यानी कि मुस्लिम-यादव समीकरण लेकर सफल हुई थी। उधर, बसपा ने शहरी क्षेत्रों में अपना जनाधार बनाने के लिए प्रदेश के दो बडे व्यापारी नेताओं को शामिल किया था। लेकिन दल-बदल के बाद भी वे सफलता नहीं दिला सके। ऎसे व्यापारी नेता बनवारी लाल कंछल और संदीप बंसल हंसी के पात्र बन गए। बसपा ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग को आगे बढाते हुए मुस्लिम-ब्राrाण गठजोड पर जोर दिया था। दो साल पहले जिस सोशल इंजीनियरिंग के बूते पर बसपा ने प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर करिश्मा दिखाया था वह इतिहास पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में नहीं रचा जा सका। बसपा ने चुनाव जीतने के लिए हर तरीका अपनाया।जिताऊ प्रत्याशियों की खोज में दल-बदलुओं और बाहुबलियों को भी जगह दी थी। इसको लेकर पार्टी की आलोचना भी की जा रही थी। पार्टी की यह नीति भी सफल नहीं रही उसके टिकट पर चुनाव लडे उन्नाव सीट के प्रत्याशी अरूण शंकर शुक्ला उर्फ अन्ना, वाराणसी से प्रत्याशी मुख्तार अंसारी, गाजीपुर से प्रत्याशी अफजाल अंसारी चुनाव हार गए। यूपी में इस चुनाव में माफिया के साथ-साथ धन बलियों को भी नकार दिया गया। पानी की तरह पैसा बहाने के बावजूद लखनऊ से बसपा प्रत्याशी डा. अखिलेश दास न केवल चुनाव हारे, बल्कि तीसरे स्थान पर रहे। प्रतापगढ सीट से अपना दल के टिकट पर चुनाव लडे माफिया अतीक अहमद भी चुनाव हार गए। लेकिन बसपा के टिकट पर जौनपुर से चुनाव लडे धनंजय सिंह जरूर बडे बहुमत से चुनाव जीतने में सफल रहे। बसपा के ही टिकट पर चुनाव लडे बदायूं के प्रत्याशी डी.पी. यादव और गिरीश पासी व रिजवान जहीर भी चुनाव हार गए। पार्टी ने विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव में भी ब्राह्मण कार्ड पर जोर दिया था। इसलिए बीस टिकट ब्राह्मणों को दिए थे, लेकिन उनमें से सिर्फ पांच ही जीत पाए। सत्रह सुरक्षित सीटों पर भी पार्टी पिछड गई और मुख्य प्रतिद्वंदी सपा ने अज्छा प्रदर्शन किया।
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