Tuesday, May 26, 2009

भाजपा को बचायेंगे या निपटायेंगे नरेन्द्र मोदी

एनडीए घटक दल के नेता शरद यादव ने हार का ठीकरा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर मढ़ दिया चंदन मित्रा ने भी एनडीए की हार में मोदी का नाम जोड़ दिया अब सवाल यह उठ खड़ा हुआ है कि क्या मोदी के किले की दीवार दरक रही है? यूपीए के पक्ष में नतीजे आने के बाद मोदी दो दिन अपने निवास स्थान में एंकातवास हो गए और मीडिया के समक्ष कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की लेकिन दो दिन बाद जब वे दिल्ली जाने को रवाना हुए तो बहुत चतुराई से मीडिया पर सारा आरोप मढ़ दिया और कहा कि मैं नही मीडिया उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट कर रहा था। अगला प्रधानमंत्री गुजरात से होगा? भाजपा का यह सपना भी धरा का धरा रह गया जनवरी 2009 में आयोजित वायब्रेंट सम्मेलन में उद्योगपति मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रमोट कर रहे थे तो क्या मोदी जरूरत से ज्यादा महत्वाकांक्षी हो गए थे? या उनके विवादास्पद वक्तव्य ने एनडीए की हवा निकाल दी? लेकिन एनडीए को जिस तरह मुंह की खानी पड़ी है उससे पार्टी के भीतर ही मोदी राग शुरू हो गया है तो क्या मोदी के मोदीत्व का तिलिस्म टूट रहा है? कारण चाहें कुछ भी हो लोकसभा चुनाव में भाजपा के स्टार प्रचारक मुख्यमंत्री मोदी की तीन सौ से ज्यादा सभाओं की मेहनत पार्टी को मुश्कल से 37 सीटें दिलाने में कामयाब हो पाई है। जहां तक अगर मोदी मैजिक की बात की जाए तो नाम मात्र का करिश्मा गुजरात, कर्नाटक और हिमाचल में ही चल पाया।पिछले लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को मुंह की खानी पड़ी थी तब अप्रत्यक्ष तौर पर अटलबिहारी बाजपेयी और चंद्राबाबू नायडू ने खुलेआम गोधरा दंगों को लेकर मोदी पर आरोप लगाए थे। लेकिन मोदी के किले की दीवार उस समय तो इतनी नहीे दरकी थी जितनी आज। सवाल यह उठता है कि क्या गोधरा दंगों का जख्म अभी तक नहीं भर पाया? जिस गोधरा दंगों के रथ पर सवार मोदी ने गुजरात की चुनावी वैतरणी पार की थी और बाबरी मिस्जद के विध्वंस के बाद गुजरात को कटृर हिंदुत्व की प्रयोगशाला बना दिया तो क्या यह कटृर बनाम नरम हिंदुत्व भाजपा की हार है? मोदी गोधरा दंगों पर मौन रहकर भले ही विकास का दावा करें लेकिन दंगों के दंश से वे अब तक मुक्ति नहीं पा सके है। लेकिन जनता ने जो जनादेश दिया है मोदी समेत भाजपा के नेता इस नतीजे से अचंभित है उन्हें आत्ममंथन तो करना होगा। 2007 के विधानसभा चुनाव में मोदी को 126 सीटों पर तीसरी बार अप्रत्याशत जीत हासिल की थी तब से ही मोदी का मोदीत्व भाजपा में और मुखर हो उठा था। और शायद इस अप्रत्याशत जीत से अडवानी के लिए मोदी एक कीमती मोहरा बन गए थे तो क्या इस चुनाव ने सिध्द कर दिया है कि मोदी का जादू मात्र उसके गृहराज्य गुजरात तक ही सीमित है? लेकिन पिछले सात वर्षों र्से गुजरात की सत्ता पर विराजमान भाजपा इस लोकसभा चुनाव में सिर्फ अपनी साख बचाने में ही सफल रही है। गुजरात में भाजपा को 15 और कांग्रेस को 11 सीटें मिली है। इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस जहां एक ओर अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई और कांग्रेस के दो दिग्गज एवं मंत्री रह चुके शंकरसिह वाघेला और, नारायण राठवा को पराजय का मुंह देखना पड़ा। हांलाकि मोदी मंडली ने अडवानी को भावी प्रधानमंत्री बनाने के लिए गुजरात से 20 सीटों का दावा किया था लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव की तुलना में सिर्फ एक सीट पर ही बढ़त हासिल हुई है और कांग्रेस को एक सीट का घाटा हुआ है। स्टार प्रचारक के रूप में उभरे मोदी ने अडवानी को गुजरात की राजधानी गांधीनगर की संसदीय सीट पर तो बिठा दिया लेकिन देश की राजधानी दिल्ली उनसे कोसों दूर हो गई जिससे भाजपा के शीर्ष नेताओं एवं राज्य में मोदी के विरोधियों में सुगबुगाहट शुरू हो गई है। इतना ही नहीं गुजरात में अपने हिंदुत्ववादी बनाम विकासवादी चेहरे के करिश्मे से मात्र एक सीट ज्यादा ले सके। जबकि मोदी ने पूरे आत्मविश्वास से भरपूर गुजरात में करीबन 70 सभाएं की थी। बोफोर्स घोटाले में इटली के भाई को बेल और गुजरात के बेटे को जेल कहकर भुनाया लेकिन उनका यह करिश्मा भी काम नहीं आ सका। भाजपा के लिए अगर यह झटका है तो गुजरात में कांग्रेस के लिए भी यह कम दुखदायी नहीे है। गुजरात में कांग्रेस वैसे भी आंतरिक गुटबाजी की राजनीति से जूझ रही है। कांग्रेस में जान फूंकने के लिए गुजरात में आंतरिक चुनाव करवाए गए और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने एक महीने में तीन यात्राएं भी की लेकिन गुजरात में कांग्रेस ने अब तक अपनी पिछली गलतियों से सबक नहीे सीखा यही कारण है गुजरात लोकसभा में ना ही राहुल का करिश्मा चला और ना ही मोदी का मैजिक चल पाया। लेकिन भाजपा के शीर्ष नेता जो मोदी को 2014 का प्रधानमंत्री घोषित कर रहे थे इस चुनाव के बाद अगलें बगले झांकने लगे हैं। गुजरात के चुनावी परिणाम भाजपा के लिए आघात हैं लेकिन जो नतीजे आए हैं उससे यह स्पष्ट है कि भाजपा के असंतुष्टों को सफलता मिली है। भाजपा के बागियों के कारण ही कांग्रेस को राजकोट, पाटन, दाहोद और बनासकांठा की चार सीट जीतने में सफलता मिली है। राजकोट को भाजपा का गढ़ कहा जाता था करीबन 20 साल बाद कांग्रेस के कुंवरजी बावलिया की इस सीट से जीत हुई है। कांग्रेस की इस विजय में भाजपा के वरिष्ठ नेता वल्लभ भाई कथीरिया का सहयोग रहा है। पाटन सीट के लिए भाजपा ने कांग्रेस विधायक अपराधिक छवि के उम्मीदवार भावसिंह राठौड़ को टिकट दी थी जिससे भाजपा में बगावत की स्थिति पैदा हो गई थी और कांग्रेस के जगदीश ठाकोर की जीत हुई। बनासकांठा बैठक की सीट को लेकर भाजपा पूरी तरह से आश्वस्त थी लेकिन भाजपा के विधायक लीलाधर वाघेला ने अपनी पार्टी के विरूध्द खुलेआम प्रचार किया और कांग्रेस के मुकेश गढ़वी की जीत हुई। दाहोद सीट के लिए भाजपा ने कांग्रेस के सोमजी डामोर को टिकट दी थी लेकिन वहां भी भाजपा ने अंदर ही बगावत कर कांग्रेस की उम्मीदवार डा. प्रभा तावियाड़ की मदद की। सवाल यह उठता है कि क्या अब मोदी के विरोधी सक्रिय हो गए हैं? क्योकि सवाल इस बात का भी है कि मोदी ने जिन अपराधिक चेहरों को चुनावी मैदान में खड़ा किया उसमें भावसिंह राठौड़, सोमजी डामोर और बैंक घोटाले में शामिल दीपक साथी चुनाव हार गए।लेकिन बैंक घोटाले में शामिल प्रभातसिंह चौहान गोधरा से और सी.आर.पाटिल नवसारी से चुनाव जीत गए। लेकिन सवाल इस बात का है कि जिस तरह से मोदी के विरोध में सुर उठ खड़े हुए हैं वह गुजरात में आने वाले दिनों में कहीं तूफानी साबित ना हो?

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