लोकसभा चुनाव में राजस्थान में करारी हार के बाद भाजपा में शीतयुध्द शुरू हो गया है। प्रदेशाध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर व पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को हटवाने के लिए प्रदेश के कई नेता सक्रीय हो गए है। यहां तक की कुछ नेता दिल्ली जाकर भी अपनी मांग उठा चुके है, इस बीच वसुंधरा राजे व ओमप्रकाश माथुर को भी दिल्ली तलब किया जहां उन्होने प्रदेश में हार के कारणों की जानकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह व लालकृष्ण आडवाणी को देकर आए।
चुनाव प्रचार के दौरान ही भाजपा के वरिष्ठ नेता पीएम इन वेटिंग लालकूष्ण आडवाणी ने घोषणा की थी कि यदि प्रधानमंत्री नहीं बन सके तो राजनीति से संन्यास ले लेंगे और इसी अनुरूप उन्होने परिणामों के बाद लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता का पद संभालने से भी इंकार कर दिया। भाजपा में अभी ऐसा कोई अन्य नेता नहीं है जिसे आडवाणी के उत्तराधीकारी के रूप में सर्व सम्मति से स्वीकारा जा सके। इसलिए उनका पद संभालने के लिए कई नेताआें के दिल में हिलोरे उठने लगे। आपसी फूट रोकने के लिए सभी नेताओं ने आडवाणी से अपना फैसला बदलने का आग्रह किया और लोह पुरूष पिघल गए तथा अपना निर्णय बदल कर पद संभालना मंजूर कर लिया।
आडवाणी के फैसले से विभिन्न्न रायाें के प्रांतीय नेताआें को भारी राहत मिलेगी। प्राय: हर पार्टी में कोई भी चुनाव हारने के बाद महत्वकांक्षी नेता स्थापित नेतृत्व पर आक्रमण कर उसे पद से हटवाने की मांग करते ही हैं ओर राजस्थान भाजपा में भी यही हुआ। अब सवाल यह है कि क्या राजस्थान में वसुंधरा राजे को विपक्ष की नेता व ओमप्रकाश माथुर को प्रदेश अध्यक्ष से हटाया जा सकता है? उन्हें हटाने के बाद ऐसा कौन नेता है जो अगले चुनावाें में खोई हुई सत्ता वापस दिलाने की क्षमता रखता हो। यूं तो प्रदेश में हरिशंकर भाभडा,ललित किशोर चतुर्वेदी, भंवरलाल शर्मा जैसे दिग्गज भैरोसिह शेखावत के मंत्रिमंडल में रह उनके उत्तराधिकारी के रूप में माने जाते थे। किंतु शेखावत के उप राष्ट्रपति बनने के बाद पार्टी के राष्ट्रीय नेताओ ने इन में से किसी को भी प्रदेश की बागडोर नहीं सौंपी और वसुंधरा राजे को नेतृत्व सौंपा। जिन्होने अपने दम पर भाजपा को स्पष्ट बहुमत दिला सत्ता हासिल की। पांच साल में कई नेताआें के मन में यह बात आई कि उनको प्रदेश का नेतृत्व मिल जाए तो वे सीएम बन सकते हैं। इनमें एक ओमप्रकाश माथुर है जो गुजरात के प्रभारी थे तब नरेन्द्र मोदी की सत्ता वापसी में खुद ही योग्यता का दम भरने लगे। मोदी के कारण उन्हें वसुंधरा को पूछे बिना प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया। आपसी संदेह के कारण विधानसभा चुनावाें में दोनो की पटरी नहीं बैठी और चुनाव हार गए लोकसभा चुनावाें में भी यही हस्र हुआ तो दोनो को हटाने की मांग उठ गई। पार्टी आलाकमान के पास अभी वसुंधरा राजे जैसा कोई सशक्त नेतृत्व नहीं है। वह अकेली नेता है जिसके प्रति सम्पूर्ण प्रदेश में कार्यकर्ताओ का रूझान देखा जा सकता है। उनकी तुलना में ओमप्रकाश माथुर काफी पीछे हैं। किन्तु उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री नेरन्द्र मोदी का वृहदहस्त प्राप्त होने से उन्हें राष्ट्रीय नेता छेडने की स्थिति में नहीं है वैसे भी जब आडवाणी ने ही संन्यास की अपनी घोषणा को नजरअंदाज कर विपक्ष का नेता बनना स्वीकार कर लिया तो अब वे प्रादेशिक नेतृत्व को बदलने की स्थिति में नहीं है। उत्तराखंड में मुख्यमंत्री को हटाने की मांग भी इसीलिए खारिज कर दी गई। अगले पांच साल विपक्ष में रहकर कांग्रेस सरकार का मुकाबला करने के लिए वसुंधरा के अलावा कोई नेता दिखाई नहीं देता। क्याेंकि कांग्रेस ने उन पर जो भ्रष्टाचार के आरोप लगाए उनका सामना व जवाब देने का काम वहीं कर सकते। लोकसभा चुनावाें में कांग्रेस राहुल गांधी के युवा शक्ति को अधिक तवाो देने के कारण यादा समर्थन हासिल कर सके। इसकी तुलना में भाजपा हरिशंकर भाभडा, ललित किशोर चतुर्वेदी, भंवरलाल शर्मा या रामदास अग्रवाल जैसे नेताआें को आगे कर प्रदेश में वोट बैंक नहीं बढा सकती। यदि इनमें इतनी क्षमता होती तो पार्टी वसुंधरा को केन्द्र से नहीं भेजती। आज प्रदेश नेतृत्व 50 से 60 साल के नेता को सौंपा जाता है तो वह युवा शक्ति को भी आकर्षित कर सकेगा। बुजुर्गों को भी साथ लेकर उनके मार्गदर्शन में सफलता प्राप्त कर सकता है। पूर्र्व उप राष्ट्रपति शेखावत ने लोकसभा चुनावाें से पूर्व अपने दामाद नरपतसिंह राजवी को प्रतिपक्ष का नेता बनवाने के लिए वसुंधरा राजे पर कांगेस द्वारा लगाए भ्रष्टाचार के आरोपाें को उछाला था। लेकिन राजवी में जनता को अपने प्रति बांधे रखने की क्षमता होती तो विधानसभा चुनावाें में उन्हें चित्तोड छोडकर जयपुर नहीं जाना पडता। कैलाश मेघवाल व गुलाबचंद कटारिया भी प्रदेश का नेतृत्व करने की क्षमता रखते हैं। किन्तु उनकी वसुंधरा से पटरी नहीं बैठती। इसलिए जेसा अभी तनाव दिखाई दे रहा वैसा बना रहेगा। भाजपा में अभी राजेन्द्र सिंह राठौड, डॉ सांवरमल जाट, किरण माहेश्वरी, श्रीचन्द्र कृपलानी, रामलाल जाट जैसे चेहरे ही ऐसे है जो वसुंधरा के साथ अपनी सक्रीयता से प्रदेश भर में पुन: संगठन में जान फूंक सकते हैं। हालांकि गुटबाजी में उलझे नेता किरण व कृपलानी को हारे हुए नेताआें की संज्ञा देकर उनके नाम का विरोध करेेंगे लेकिन चुनाव हार कर ही कांगेस भी पुन: सत्ता में लौटी है और वे सभी मंत्री भी वापस जीतकर आए जो हजाराें वोटो से हारे थे। भैरोसिंह शेखावत 93 में श्रीगंगानगर से न सिर्फ विधानसभा चुनाव हारे अपितु तीसरे स्थान पर रहने के बावजूद मुख्यमंत्री बने।
चुनाव प्रचार के दौरान ही भाजपा के वरिष्ठ नेता पीएम इन वेटिंग लालकूष्ण आडवाणी ने घोषणा की थी कि यदि प्रधानमंत्री नहीं बन सके तो राजनीति से संन्यास ले लेंगे और इसी अनुरूप उन्होने परिणामों के बाद लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता का पद संभालने से भी इंकार कर दिया। भाजपा में अभी ऐसा कोई अन्य नेता नहीं है जिसे आडवाणी के उत्तराधीकारी के रूप में सर्व सम्मति से स्वीकारा जा सके। इसलिए उनका पद संभालने के लिए कई नेताआें के दिल में हिलोरे उठने लगे। आपसी फूट रोकने के लिए सभी नेताओं ने आडवाणी से अपना फैसला बदलने का आग्रह किया और लोह पुरूष पिघल गए तथा अपना निर्णय बदल कर पद संभालना मंजूर कर लिया।
आडवाणी के फैसले से विभिन्न्न रायाें के प्रांतीय नेताआें को भारी राहत मिलेगी। प्राय: हर पार्टी में कोई भी चुनाव हारने के बाद महत्वकांक्षी नेता स्थापित नेतृत्व पर आक्रमण कर उसे पद से हटवाने की मांग करते ही हैं ओर राजस्थान भाजपा में भी यही हुआ। अब सवाल यह है कि क्या राजस्थान में वसुंधरा राजे को विपक्ष की नेता व ओमप्रकाश माथुर को प्रदेश अध्यक्ष से हटाया जा सकता है? उन्हें हटाने के बाद ऐसा कौन नेता है जो अगले चुनावाें में खोई हुई सत्ता वापस दिलाने की क्षमता रखता हो। यूं तो प्रदेश में हरिशंकर भाभडा,ललित किशोर चतुर्वेदी, भंवरलाल शर्मा जैसे दिग्गज भैरोसिह शेखावत के मंत्रिमंडल में रह उनके उत्तराधिकारी के रूप में माने जाते थे। किंतु शेखावत के उप राष्ट्रपति बनने के बाद पार्टी के राष्ट्रीय नेताओ ने इन में से किसी को भी प्रदेश की बागडोर नहीं सौंपी और वसुंधरा राजे को नेतृत्व सौंपा। जिन्होने अपने दम पर भाजपा को स्पष्ट बहुमत दिला सत्ता हासिल की। पांच साल में कई नेताआें के मन में यह बात आई कि उनको प्रदेश का नेतृत्व मिल जाए तो वे सीएम बन सकते हैं। इनमें एक ओमप्रकाश माथुर है जो गुजरात के प्रभारी थे तब नरेन्द्र मोदी की सत्ता वापसी में खुद ही योग्यता का दम भरने लगे। मोदी के कारण उन्हें वसुंधरा को पूछे बिना प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया। आपसी संदेह के कारण विधानसभा चुनावाें में दोनो की पटरी नहीं बैठी और चुनाव हार गए लोकसभा चुनावाें में भी यही हस्र हुआ तो दोनो को हटाने की मांग उठ गई। पार्टी आलाकमान के पास अभी वसुंधरा राजे जैसा कोई सशक्त नेतृत्व नहीं है। वह अकेली नेता है जिसके प्रति सम्पूर्ण प्रदेश में कार्यकर्ताओ का रूझान देखा जा सकता है। उनकी तुलना में ओमप्रकाश माथुर काफी पीछे हैं। किन्तु उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री नेरन्द्र मोदी का वृहदहस्त प्राप्त होने से उन्हें राष्ट्रीय नेता छेडने की स्थिति में नहीं है वैसे भी जब आडवाणी ने ही संन्यास की अपनी घोषणा को नजरअंदाज कर विपक्ष का नेता बनना स्वीकार कर लिया तो अब वे प्रादेशिक नेतृत्व को बदलने की स्थिति में नहीं है। उत्तराखंड में मुख्यमंत्री को हटाने की मांग भी इसीलिए खारिज कर दी गई। अगले पांच साल विपक्ष में रहकर कांग्रेस सरकार का मुकाबला करने के लिए वसुंधरा के अलावा कोई नेता दिखाई नहीं देता। क्याेंकि कांग्रेस ने उन पर जो भ्रष्टाचार के आरोप लगाए उनका सामना व जवाब देने का काम वहीं कर सकते। लोकसभा चुनावाें में कांग्रेस राहुल गांधी के युवा शक्ति को अधिक तवाो देने के कारण यादा समर्थन हासिल कर सके। इसकी तुलना में भाजपा हरिशंकर भाभडा, ललित किशोर चतुर्वेदी, भंवरलाल शर्मा या रामदास अग्रवाल जैसे नेताआें को आगे कर प्रदेश में वोट बैंक नहीं बढा सकती। यदि इनमें इतनी क्षमता होती तो पार्टी वसुंधरा को केन्द्र से नहीं भेजती। आज प्रदेश नेतृत्व 50 से 60 साल के नेता को सौंपा जाता है तो वह युवा शक्ति को भी आकर्षित कर सकेगा। बुजुर्गों को भी साथ लेकर उनके मार्गदर्शन में सफलता प्राप्त कर सकता है। पूर्र्व उप राष्ट्रपति शेखावत ने लोकसभा चुनावाें से पूर्व अपने दामाद नरपतसिंह राजवी को प्रतिपक्ष का नेता बनवाने के लिए वसुंधरा राजे पर कांगेस द्वारा लगाए भ्रष्टाचार के आरोपाें को उछाला था। लेकिन राजवी में जनता को अपने प्रति बांधे रखने की क्षमता होती तो विधानसभा चुनावाें में उन्हें चित्तोड छोडकर जयपुर नहीं जाना पडता। कैलाश मेघवाल व गुलाबचंद कटारिया भी प्रदेश का नेतृत्व करने की क्षमता रखते हैं। किन्तु उनकी वसुंधरा से पटरी नहीं बैठती। इसलिए जेसा अभी तनाव दिखाई दे रहा वैसा बना रहेगा। भाजपा में अभी राजेन्द्र सिंह राठौड, डॉ सांवरमल जाट, किरण माहेश्वरी, श्रीचन्द्र कृपलानी, रामलाल जाट जैसे चेहरे ही ऐसे है जो वसुंधरा के साथ अपनी सक्रीयता से प्रदेश भर में पुन: संगठन में जान फूंक सकते हैं। हालांकि गुटबाजी में उलझे नेता किरण व कृपलानी को हारे हुए नेताआें की संज्ञा देकर उनके नाम का विरोध करेेंगे लेकिन चुनाव हार कर ही कांगेस भी पुन: सत्ता में लौटी है और वे सभी मंत्री भी वापस जीतकर आए जो हजाराें वोटो से हारे थे। भैरोसिंह शेखावत 93 में श्रीगंगानगर से न सिर्फ विधानसभा चुनाव हारे अपितु तीसरे स्थान पर रहने के बावजूद मुख्यमंत्री बने।
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